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अंधकार की गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन

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अंधकार की गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन

अंधकार की गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन

अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!

वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!

लहराते वे खेत दृगों में
हुआ बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उसके जीवन की
हरियाली जिनके तृन-तृन से!

आँखों ही में घूमा करता
वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!

बिका दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली, आँखे आती भर,
देख-रेख के बिना दुधमुँही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!

घर में विधवा रही पतोहू,
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल ने,
डूब कुँए में मरी एक दिन!

ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लोटते, फटती छाती।

पिछले सुख की स्मृति आँखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती।